एक दूसरे के अनुपूरक होकर भी - कुमार रजनीश
मैं और तुम एक - एक कोना पकड़े बैठे हैं अपने मोबाइल के दुनिया में गुम। रिश्तों के नाम पर ये झल्ली-सी, इंटरनेट की रिश्तेदारियों में व्यस्त, किसको ढूंढ रहे, कुछ पता नहीं। मैं भी समेटे अपने आप को और तुम भी अपने दोनों पैरों को मोड़ें हुए कुछ मंद मंद मुस्कान लिए, न दिखाई पड़ती हुई रिश्तों को, सुई धागों की तरह सिल रहें, रफ्फू करते हुए, फटे चादर की तरह। ये बीच बीच में घूंट-घूंट पानी पीने की आवाज़ हम दो शरीर को जीवित होने का एहसास करा रहा था। शून्य की सीमा से परे शायद कुछ ढूंढने की ही बरबस कोशिश थी। कुछ तलब थी, न मिल पाने वाले की चाह की। गौरतलब हो कि दो दिलों की धड़कन, अभी भी हमारे होने का एहसास करा रही थी। उसका और मेरा। कभी एक पल दीवारों को टक टकी लगाना फिर कुछ अपने अंदर समाए, भाव भंगिमाओं को, समेटते हुए, फिर अपने बनाए दुनिया में कुछ ऐसे गुम हो गए जैसे दो अजनबी बैठे हो आस - पास न जानने के लिए, न कुछ समझने के लिए। कभी अनुभव किया है ? जब दो लोग एक दूसरे के अनुपूरक होकर भी, अनजान से दो अलग रास्तों को जन्म देते हैं? उसकी दशा और दिशा देखने के लिए ...