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Showing posts from January, 2013

बचपन और मकर संक्रांति

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जाड़े की कडकडाती सुबह के चार बजे बड़ो का चिल्लाते हुए उठाना की जल्दी उठो नहीं तो पापा गंगा जी ले जायेंगे नहाने के लिए। इतना सुन हम मनोज भैया के साथ फटाफट रजाई को बेमन त्यागते हुए सीधे खुले हुए आँगन में ब्रश आदि कर ठंढे पानी से 'कौवा- स्नान' (शार्ट- कट स्नान) कर अपने दांत किटकिटाते हुए, धुले हुए कपडे के ऊपर दो-चार स्वेटर डाल, मंदिर में पूजा करने चले जाते थे। घर के बड़े लोग गंगा जी में डुबकी लगा कर आते थे। इसी बीच माँ और बडकी भाभी आलू दम और दुसरे व्यंजन बनाने में भिड़ी रहती थी।  चुडा- दही , तिल - लाई के इस पावन पर्व की शुरुआत हमारे यहाँ सबसे पहले ढुनमुन बाबा को बुलाकर प्रेम से चुडा-दही खिलाकर होता था। एक तरह का आदर था सत्कार था, स्नेह था उनका हमारे प्रति इसीलिए वो हमलोगों के आमंत्रण का इंतज़ार करते थे। उन्हें चुडा-दही में ज्यादा गुड (मीठा, भुर्रा) लेना पसंद था। जब उन्हें आलू दम की सब्जी तीखी लगती थी तब वे खाते-खाते धीमी आवाज में गाली दे देते थे, जिसे हम उनका आशीर्वाद समझ खुश हो लेते थे। उनको दक्षिणा दे, पैर छु कर, प्रणाम कर माँ-पापा विदा करते थे। फिर हम सब एक साथ बैठ कर चुडा-द

राजू बूट पॉलिश वाला

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  उम्र के जिस मोड़ पर वह था, उसे देखकर कोई भी यह अनुमान नहीं लगा सकता था कि उसे जीवन में इतना कटु अनुभव हो चुका है। बेहद खूबसूरत-सा दिखने वाले राजू से जब हमने उसकी जिंदगी के अनुभवों के बारे में जानने कि कोशिश की थी तो मानो उसके घावों को किसी ने गहरा कर दिया हो उसकी आँखें नम हो गयी थीं। उसके शब्द मेरे भीतर गहरे उतरते चले गये थे ।       बात उन दिनों की है जब मैं तीसरी कक्षा में पढ़ता था। मेरे घर के आगे एक विशाल छायादार नीम का वृक्ष था। दोपहर में अगल-बगल के लोग आकर उसकी छाँव में विश्राम करते थे। हमारी गर्मीयों की छुट्टियां हो गयी थीं। मैं अपने कुछ मित्रों एवं चचेरे भाईयों के साथ चबूतरे पर बैठकर नीम कौड़ी (नीम फली) बेचने का खेल खेलता था। मीठी वाली  नीम कौड़ी मंहगा और कच्ची-कड़वी वाली  सस्ते में बेचते खरीदते थे। मिट्टी के छोटे से दीये में नीम कौडियों को सजा, हम बच्चों की दुकानदारी चल रही थी। इस क्रम में वहाँ पहली बार एक लड़के से मुलाकात हुई जो इस तपती गर्मी में राहत पाने के लिए नीम के चबूतरे पर विश्राम करने के लिए आया था। वह हमारे इस खेल को बड़े गौर से देख रहा था और मुस्कुरा रहा था। व

दीदी याद है तुम्हे ?

दीदी याद है तुम्हे ? दीदी याद है तुम्हे ? वह आँगन में मिट्टी से लोट-पोट कर खेलना? वह टूटे हुए घड़े के टुकड़े को खाना? माँ के आते ही, तुलसी चबूतरे के पीछे छुप जाना ? दीदी याद है तुम्हे ? सर्दियों के शाम में अखबार का ठोंगा बनाना? ठोंगे में भर-भर कर वो भूंजा चबाना? हरी मिर्च के तीखेपन से वो आँखों का रोना? दीदी याद है तुम्हे ? इया का सब कोठरियो में लालटेन दिखाना? धीमी आवाज़ से तुलसी की पूजा? वो देहरी पे दियों का जलाना? दीदी याद है तुम्हे ? अपनी पढाई और कान ऐठ कर सबको पढ़ाना? माँ की शाबाशी और पीठ थपथपाना? कम्बल में छिपाकर, पैरों का लड़ाना? दीदी याद है तुम्हे ? वो सोंधी-सी खुशबू, मिट्टी चूल्हे का खाना? पीढ़े पर बैठकर, पंक्तिबद्ध हो, थाली सजाना? वो खाने से पहले, कुछ मंत्रो का पढना? दीदी याद है तुम्हे ? वो सर्दी की रातें, पुआल का बिस्तर? तोता-मैना की कहानी, वो इत्मीनान से सोना? सुबह चार बजे उठना, फिर कुछ रट्टे लगाना ? दीदी याद है तुम्हे वो सब बातें ? चलो फिर से चंद लम्हों को वहीँ ले जाते हैं फिर से बचपन के कुछ हसीन पल दुहराते हैं दीदी, चलो कुछ लोरियां फिर स

हर बार मुझ से मेरे अंतरमन ने

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हर बार मुझ से मेरे अंतरमन ने बहुत ही विनय से, तन्मयता से पूछा है- यह अभिलाषा कौन? कौन है बताना ज़रा !’ हर बार मुझ से मेरे दोस्तों ने व्यंग्य से, कटाक्ष से, कुटिल संकेत से पूछा है- यह अभिलाषा कौन है बताना ज़रा !’ हर बार मुझ से मेरे अपनों ने कठोरता से, अप्रसन्नता से, रोष से पूछा है- यह अभिलाषा कौन है बताना ज़रा !’ मैं तो आज तक कुछ नहीं बता पाया तुम मेरे सचमुच कौन हो क्या परिचय हैं तुम्हारा ! फिर एक आवाज सी आती है और नयन छलक जाती है अंतर्मन से एक धूमिल सी तस्वीर नज़र आती है अरे ये तो मेरी 'आशा' है यही मेरी अभिलाषा की परिभाषा है!

बचपन और खिलौना

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बचपन और खिलौना - कुमार रजनीश  -------------------------------------- खेलने की उम्र में,  खिलौने हाथ में लिए, दौड़ता है वह. हर आती जाती गाड़ियों से, लुक्का-छिप्पी खेलता, खिलौनों को बेचने के लिए, दौड़ता है वह. बन्दर-भालू और बाजे को टाँगे, हरी बत्तियों के बीच, दौड़ता है वह. हर गाड़ियों में बच्चो को ढूंढता, उन्हें लुभाने की कोशिश में, दौड़ता है वह. वक़्त कम है, लाल बत्ती होने वाली है, कोई तो खरीदे खिलौने, इस आस में, दौड़ता है वह. आठ की उम्र में, ज़िन्दगी के लिए, बरबस, गिरता उठता, फिर संभल, दौड़ता है वह. बिक जाये अगर कुछ खिलौने, भूख मिट जाएगी, माँ भी कुछ खा लेगी, चमकती आँखों से, फिर उम्मीदों के साथ, दौड़ता है वह.

मेरी यात्रा अंतहीन है

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मेरी यात्रा अंतहीन है जब भी कभी, मन कही रुकने को होता है मेरी मन की उड़ान नयी राहें खोज लेती है