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Showing posts from April, 2013

आओ बैठ कर दो-चार बातें कर लें..

आओ बैठ कर दो-चार बातें कर लें.. भागती ज़िन्दगी से कुछ पलों को चुरा थोड़ा आराम कर लें.. कुछ तुम अपनी कहना, कुछ मेरी सुनना.. एक दुसरे का दर्द कुछ यूं बाँट लें.. सबने अपनी कही, किसी और की न सुनी.. आओ शब्दों की बानगी बुन लें.. साथ गुजारे कुछ लम्हों को याद कर लें.. क्या याद है तुम्हें ये दरख़्त, इसकी छाँव? बैठ कर भरी दोपहर में, इसी के नीचे.. भविष्य को संवारा करते थे.. आज भी उन हंसीं पलों को याद कर, खुश हो लेता हूँ.. चलो फिर से दोहराते हैं, उन घड़ियों को..      आओ बैठ कर दो-चार बातें कर लें.. भागती ज़िन्दगी से कुछ पलों को चुरा थोड़ा आराम कर लें..

बड़ो ने कहा है - मेरा भी घर होगा !

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बड़ो ने कहा है मेरा भी घर होगा, अपने सर पे भी एक छोटा-सा छत होगा. छोटी-सी उम्र से ईट-पत्थरो को जोड़ा है मैंने, माँ-बाबा के साथ चिलचिलाती दोपहर में, छोटे भाई को ले मिटटी-गारे को ढ़ोया है मैंने. आज बाबा की नसों में जान कुछ कम सी हो गयी है. माँ भी कुछ झुंक-सी गयी है, उम्र ता उम्र बढ़ बीमारी भी गयी है. आँधियों ने चिरागों को बुझाया है, इसलिए मैंने सितारों को अपने आँगन में सजाया है. आज उम्र की इस मुकाम पर, मैं अकेला खड़ा हूँ. सबका साथ छुट गया, शहर में वीरान पड़ा हूँ. बचपन में शहर को फैलता देखा था, आज न जाने क्यों इसको सिकुड़ता पाया हूँ. क्या इन ईट-पत्थरों के शहर में अपने सपनो को पूरा कर पाउँगा? बड़ो ने कहा है की मेरा भी घर होगा, अपने सर पे भी एक छोटा- सा छत्त होगा.

गर कभी अकेला महसुस करो

गर कभी अकेला महसुस करो आ जाना बेहिचक   आज भी बैठा हूँ तेरे इन्तजार में   संग बैठ पियेंगे चाय   वही टूटी लकड़ी के तख़्त पर जहाँ कभी बैठ घंटो बिताते थे   भविष्य की किताबो की पन्नो का पलटना   गुदगुदाती थी हसीं लम्हे गर कभी अकेला महसुस करो आ जाना बेहिचक   आज भी बैठा हूँ तेरे इन्तजार में   बहुत कुछ बदला है समय के सयाही ने   कभी ज़मीं को आसमां तो   कभी आसमां को ज़मीं पे उतरते देखा है दिल ने भी पत्थर सा एहसास किया है   क्योंकि कभी चूड़ियों को हाथो में खनकता   तो कभी टूटता पाया है   गर कभी अकेला महसुस करो आ जाना बेहिचक   आज भी बैठा हूँ तेरे इन्तजार में  

मैं बालक हूँ छोटा, कभी खेला, कभी मिटटी में लेटा

मैं बालक हूँ छोटा , कभी खेला , कभी मिटटी में लेटा. तुम मुझेसे लिखने को कहते हो ? जब मैंने लिखा तो पढने को कहते हो. जब पढ़ा तो समझने को कहते हो. और जब समझा तो समझाने को कहते हो. उफ्फ.. थक गया बड़ो की दरिंदगी से. बचपन से ही बड़ो की सीख देने लगे.. बड़े तो तुम खुद न हो सके.. आज भी छिपा है तुम्हारे अन्दर वो बचपना. मैं बालक हूँ छोटा , कभी खेला , कभी मिटटी में लेटा! 

बाँध के पगड़ी सूरज ने

बाँध के पगड़ी सूरज ने कैसी शिद्दत है दिखलाई , इस तपती धुप में देखो ,  है   सबकी शामत आई . अन्दर गर्मी लगती है और बाहर भी है धुप कड़ी , आग बरसती है अम्बर से , धरती सारी जली पड़ी . पंछी सारे चोच खोलकर , छिपते फिरते इधर   उधर , राही भी थक   हार के , देखो ताने बैठे हैं चादर . खेलते बच्चे , सो गए अब तो थक हार कर , चौराहे का काला कुत्ता , हांफ रहा जीभ निकाल कर . खपरैल के नीचे बैठा श्रमिक झेल रहा पत्ते का पंखा , एक हाथ पानी बोतल , और दूजे में सत्तू - चोखा . आराम से लेटा धरती बिस्तर और पत्थर को कर तकिया , गर्म हवाओ ने हाय सबको आखिर ढेर किया . भरी दोपहरी अम्मा ने आचार आम का लगवाया , भाभी ने भी मेहमानों को सौफ का शरबत   पिलवाया . खड़ा चौक पर बिरजू भी देखो गुर मंतर सिखलाता , पांच रुपये का आम पन्ना बेच , गर्मी का मुंह चिढाता .

तुम्हारे ही गुण से ...

तुम्हारे ही गुण से ... तुम्हारे ही दोष से ... सिखा   है मैंने बहुत कुछ। तुम संग , जिंदगी की अंगड़ाइयों में ... धुप और छाव में ... सिखा   है मैंने बहुत कुछ। कमज़ोर कड़ियों   में ... हमारे मजबूत बन्धनों में .. सिखा   है मैंने बहुत कुछ। कभी रोते हुए पलों में ... संग गुनगुनाते हुए छणो में ... सिखा   है मैंने बहुत कुछ। ऐसे ही कट जाये खूबसूरती से लम्हे ... गर साथ हो , हर दम तुम्हारा ... यही ' आसरा ' हो हमारा-तुम्हारा।

जीवन-साथी की दूकान

      चौकिये मत! यह कोई व्यस्को की समस्याओं की समाधान या इलाज़ करने वाली क्लिनिक या दुकान का नाम नहीं है.             मैं भी जब यह पहली बार उस रिक्शेवाले भैया से इसके बारे में सुना था तो चौक गया था. दरअसल बात यह है की कल शाम जब मैं ऑफिस से घर लौट रहा था तो मौसम का रूख बहुत सुहाना हो रखा था यानि की बारिश जम कर हो रही थी. मैं जैसे ही सेक्टर-१४ , द्वारका मेट्रो स्टेशन , से बाहर निक ला , बारिश अपने चरम सीमा पर थी. घर पहुँचते-पहुँचते शायद मैं भींग जाता इसलिए मैंने रिक्शा लेना ठीक समझा. रिक्शेवाले ने हमारे अपार्टमेन्ट का किराये बताये बगैर ही मुझे बैठा लिया. जैसे ही हम थोड़ी दूर पहुंचे , मैंने उससे पूछा कि ' इरोस मेट्रो मॉल ' में ये कौन-सी दुकान खुल गयी है ? उसने बड़े ही सरलता से जवाब दिया "सर ये जीवन-साथी की दुकान है". इससे पहले की मैं कुछ समझता या पूछता , उसने फिर कहा "इसके साथ का जोगाड़ - एम् डी भी खुल रहा है".         रिक्शेवाले भैया कि दोनों बातों को समझने में मैं असमर्थ था , इसलिए उत्सुकतापूर्वक पूछा कि यह ' जीवन-साथी ' और एम् डी क्या हैं

ई - आशीर्वाद!

पौराणिक काल में वर्षो तप करने पर ऋषि-मुनि को ईश्वरीय कृपा प्रदान होती थी. इन कृपाओं को संत-मुनि मानव कल्याण के लिए प्रयोग एवं उपयोग करते थे. जन-कल्याण में दैविक आशीर्वाद का रूप भी बड़ा अलौकिक होता था. किसी काल में राजा भागीरथ के कष्टों को हरने के लिए माँ गंगा ने भगवान् शिव के जटाओं से निकल कर इस धरती पर अवतरित हुई थी.             काल बीते , जन-कल्याण करने का तरीका बदला. समय की मांग को देखते हुए इश्वरिए कृपा भी बदल गयी. आज के भौतिकवादी दुनिया में बहुत सारी चीजें आसानी से आपके पास पहुँच रही है. लोग-बाग़ अपने व्यस्तम दैनिक कार्य में अपने कष्टों को हरने की भी व्यवस्था ढूँढने लगे हैं. काफी ' आर & डी ' भी हुई कि लोगो के दैनिक ' प्रॉब्लम ' को कैसे हरा जाए. इसी वक्त की मांग को देखते हुए कुछ चतुर लोग समाज में आगे आये और अपने तथा-कथित तप , जप और दैविक चमत्कार के माध्यम से लोगों के कल्याण के लिए , कष्टों से निपटारे के लिए एक सुदृढ़ माध्यम चुना - वो माध्यम जो लगभग सभी के पास मौजूद हो चूका हैं किसी न किसी रूप में. ये माध्यम है - इलेक्ट्रोनिक मीडिया : टी.वी. , इन्टरनेट , मोब

ऐ बेटा..जरा जल्दी आना !

  ऐ सुनते हैं जी.. बुढापी में सुनाइयो कम देने लगा है इनका. आज छोटका के जन्मदिन है. कुछ अच्छा सा मिठाई ले आईएगा और का बोलते है उसको जो अंगरेजवन सब खाता है ? अरे छोटका की माँ उसको केक कहते हैं..तुम भी अब सेठिया गयी हो. हां...हां..ठीक है , उहे लेते आईएगा. छोटका के बहुत्ते निमन (अच्छा) लगता है.       आज पिंटू का अठारवा जन्मदिन है. घर में सबसे छोटा होने के कारण उसे सब प्यार से ' छोटका ' बुलाते हैं. मास्टर राम लखन शर्मा अपने सरकारी नौकरी से तीन साल पहले सेवानिवृत हो चुके हैं. दो बड़ी बेटी की शादी भी ठीक ठाक घर में कर दिया. सुना था कि पैसे भी ज्यादा खर्च हुए. दहेज़ काफी माँगा गया था. नौकरी में थे सो सब अच्छे से निपट गया. अब पिंटू ही है उस घर का दीया जो आगे उस देहरी पर रौशन हुआ करेगा. अभी बारहवी कि परीक्षा पास की है और बिहार     रेजिमेंट   सेंटर में सेना में बहाली में नंबर भी आ गया है. सब लोग खुश हैं और हो भी क्यों नहीं ? मास्टर साहब ने सारी ज़िन्दगी बहुत ही गरीबी में गुजारी है. मस्टराइन भी कुछ सिलाई - बुनाई का काम कर घर का खर्चा चलाती हैं. अब बेटा बड़ा हो गया और वही तो है जो अब

पूछने में क्या जाता है ???

आज कल हम सबने ' टाटा स्काई ' की ऐड देखी होगी जिसमे कस्टमर एक दुसरे से बात करते हैं और बोलते हैं की डिस्काउंट के लिए एक बार कंपनी से बात करने में क्या जाता है. इससे उन्हें डिस्काउंट मिल जाती है. कल की बात है जब मैं कुछ खरीदारी के लिए अपने पापा के साथ द्वारका सेक्टर -६ मार्केट गया था. पापा यहाँ के लाइफ स्टाइल को देख कर अच्चम्भित हो और मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे. इसका कारण जानने कि कोशिश की तो पता चला की माज़रा कुछ और था. एक फल वाला अपने ठेले (रेरी) पर सेब , अंगूर , कीनू , नारंगी , आदि बेच रहा था. मैंने जब उससे सेब के दाम पूछे तो १२० रु. किलो बताया. मुझे अपने सन्डे मार्केट से थोडा महंगा लगा सो मैं चुप हो गया. अभी मैं कुछ कम करवाने की कोशिश करता ( बचपन से बारगेनिंग की आदत है.) तभी एक बड़ी सी कार ( ब्रांड - फोर्चुनर ) से एक ३०- ४० वर्ष की खूबसूरत सी महिला उतरी. उसे देख लग रहा था जैसे वो खुद में बहुत व्यस्त हो और अपने अस्त्र - शस्त्र ( मोबाइल - दो या तीन , चश्मा , एक छोटा सा पर्स , एक कंधे से लटकता लेदर बैग और अपने दुपट्टा) को सँभालते हुए उस फल वाले बुजुर्ग भैया से पूछा की ये रेड व