एक दूसरे के अनुपूरक होकर भी - कुमार रजनीश


मैं और तुम एक - एक कोना पकड़े
बैठे हैं अपने मोबाइल के दुनिया में गुम।
रिश्तों के नाम पर ये झल्ली-सी,
इंटरनेट की रिश्तेदारियों में व्यस्त,
किसको ढूंढ रहे, कुछ पता नहीं।

मैं भी समेटे अपने आप को
और तुम भी अपने दोनों पैरों को मोड़ें हुए
कुछ मंद मंद मुस्कान लिए,
न दिखाई पड़ती हुई
रिश्तों को, सुई धागों की तरह सिल रहें,
रफ्फू करते हुए, फटे चादर की तरह।
ये बीच बीच में
घूंट-घूंट पानी पीने की आवाज़
हम दो शरीर को
जीवित होने का एहसास करा रहा था।
शून्य की सीमा से परे
शायद कुछ ढूंढने की ही
बरबस कोशिश थी।
कुछ तलब थी,
न मिल पाने वाले की चाह की।

गौरतलब हो कि दो दिलों की धड़कन,
अभी भी हमारे होने का एहसास करा रही थी।
उसका और मेरा।
कभी एक पल दीवारों को टक टकी लगाना
फिर कुछ अपने अंदर समाए,
भाव भंगिमाओं को,  समेटते हुए,
फिर अपने बनाए दुनिया में
कुछ ऐसे गुम हो गए
जैसे दो अजनबी बैठे हो आस - पास
न जानने के लिए,  न कुछ समझने के लिए।

कभी अनुभव किया है ?
जब दो लोग एक दूसरे के अनुपूरक होकर भी,
अनजान से दो अलग रास्तों को जन्म देते हैं?
उसकी दशा और दिशा देखने के लिए
आप खुद को भूल जाते हैं ?
समय बदल जाता है।
रिश्ते बदल जाते हैं।

एक कड़ी है जो दो लोगों को बांधे रखता है
उस सोफे का पुल हो जाना ही
दो किनारों को बांधे रखना है।

फिर से एक बार नजदीकियां बढ़ेगी,
और हम फिर से
मोबाइल के इस मायाजाल से,
बाहर निकल कर,
दो रिश्तों को बराबर निभाने की
पुरजोर कोशिश करेंगे।
रंग फिर से उड़ेलेंगे,
अपने कूची से, उन कोरे कागज़ पर।
स्याह फिर बिखेरेंगे,
नई कहानी लिखने के लिए।
प्रेम की परिभाषा का द्योतक
हम दोनों ही बनेंगे।
हकीकत की दुनिया का
ढेर सारा प्यार फिर से बटोरेंगे।
तुम भी साक्षी होना, ( मोबाइल)
नि:शब्द पड़े देखना, एक बार पुनः
हमारे नूतन प्यार के रूप को।
अगाढ़ प्रेम को निश्चित ही
एक सांचे में ढालने की
लालसा हम दोनों की आंखों में
देख पावोगे,
जब तुम हमसे बिछड़ जाओगे।
ये अब समय की भी मांग है।
तुम्हारा न होने से,
हमारे होने का एहसास कराएगा।
      - कुमार रजनीश

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