एक एक टुकड़ा जोड़कर……

एक एक टुकड़ा जोड़कर कुछ बनाया था
नहीं था आसां
कठिन फिर भी न होने दिया
सपने बुनकर संजोया था बड़े प्यार से
जिसे मान लिया हमने अपना 'जहां'
हर पल जीवन जीने के लिए
क्या पता था
टुकड़े-टुकड़े में बिख़र जायेगा
ये अपना 'जहां' युहीं छुट जाएगा
क्यों कोई
सुन्दर सपना भरमा गया
मुट्ठी से फिसलती रेत की तरह
छुटता चला गया
न जाने किस 'जहां' में

- कुमार रजनीश

Comments

Popular posts from this blog

रावण के दर्द को महसूस किया है.....

सैलाँ बनाम सैलून