हिन्दुस्तान की बेटियाँ


आज सुबह के अनुभव को आप सबके साथ साझा कर रहा हूँ. दिल्ली मेट्रो ट्रेन में सुबह एक छोटे सुखद परिवार से आखें चार हुई. मन ही मन में बहुत सारी बातें भी हुई. इस परिवार के सदस्य थे - दो बेटियाँ और एक माँ ! एक छोटी बेटी जो अपने माँ के गोद में साड़ी के आंचल से ढंकी हुई थी और दूसरी बेटी कुछ ६-७ वर्ष की, एक ढोलक और एक लोहे के छल्ले के साथ खड़ी थी.

उस बच्ची के आँख में इतनी चमक थी, जोश था, गजब का आत्मविश्वास था की बता नहीं सकता। चूँकि हम सभी खड़े थे और मेट्रो की रफ़्तार कुछ ज्यादा थी जिससे वह छोटी बच्ची कभी अपने माँ को डगमगाने से बचाती थी तो कभी अपनी रोती हुई छोटी बहन को चुप कराने में व्यस्त थी. वह अपने कुर्ता की जेब से ग्लूकोस बिस्कुट निकाल कर अपनी माँ को भी खिला रही थी और साथ में अपनी छोटी बहन को भी.

नियति के इस रीत को देख कर मैं गद-गद हो रहा था. वाह रे हिन्दुस्तान की बेटियाँ तुम पर नाज़ है. जीवन ज्ञापन करने की कला सीखने के लिए हमें स्कूल, कॉलेज और बड़े बड़े यूनिवर्सिटी जाने की जरुरत नहीं, हमारा तो ज्ञानशाला हमारे बीच में ही उपलब्ध है सिर्फ आँखें खुली रखने की जरुरत है. जी हाँ, यह परिवार नित्य दिन किसी चौराहे पर, गलियों में, पार्क में, अपने करतब-कसरत को दिखा और जादुई धुनों को बजा, अपना भरण-पोषण करता है.

इन सब में ख़ास है वह लाडली बेटी जो सदा मुस्कुराती हुई सब को हँसाती हुई अपना जीवन जी रही है. क्या उससे ये नायाब कला छीन लेनी चाहिए ? क्या उसे पढने के लिए स्कूल भेजना चाहिए ? या फिर उसके उस नायाब कला को और प्रोत्साहित करना चाहिए, एक सही दिशा और दशा देनी चाहिए ? यह संयोग ही है की कल भारत में २४ जनवरी को 'राष्ट्रीय बालिका दिवस' के रूप में मनाया गया था.

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