जब भी सुबह खिड़की खोलो,
तो सुबह वाली खुशियों को अन्दर आने देना।
देखना कि उसी के साथ, छोटे बच्चों की किलकारियाँ भी साथ आएं,
जो नई ऊर्जा के साथ, चहकते हुए अपने नन्हें कदमों से स्कूल जा रहें हों।
जब भी सुबह खिड़की खोलो,
तो ध्यान से सुनना कि कोयल की आवाज, जो तुम्हारे कान में मिश्री घोल रही हो।
बड़े चाव से अपनी पंखुड़ियों को फैलाए,
उस मुनिया को देखना जो फूलों पर मंडराती हो।
जब भी सुबह खिड़की खोलो,
तो अपने चेहरे को दोनों हाथों से थामे चौखट पर खडे हो,
ठंडी, उन्मुक्त हवाओं को अपने अन्दर भरने देना,
कि करना, एक नया अहसास, अपने खुलेपन का।
जब भी सुबह खिड़की खोलो,
तो पीपल के पत्तों से उन ओस की बूंदों को,
मोतियों के समान अपनी हथेलियों पर चुनना।
हो सके तो अनुभव करना, एक अनुपम अनुभूति का,
और समेट लेना उसे अपने मन और मस्तिष्क में।
जब भी सुबह खिड़की खोलो,
तो सूरज की किरणों को आने देना,
अपने झरोखों से, जो नई ऊर्जा का विस्तार करेगी,
तुम्हारे जीवन में, सुनहरे भविष्य की तरह।
हो सके तो उसके हल्के स्पर्श के ताप को अपने अन्दर समाहित करना,
और तरो-ताज़ा करना अपने अंतर्मन को।
जब भी सुबह खिड़की खोलो,
तो आने देना, बेला-चमेली के फूलों की खुशबु को,
जो सौम्य बनायेंगे आपके स्वभाव को।
भरपूर मजा लेना उस क्षण का,
और भर लेना उस मंजर को,
दरो-दिमाग में हर दम के लिए।
एक बार फिर से खिड़की खोलना,
कुछ जाने के लिए।
अपने अहम को, किनारे लगाने,
दु:ख की परत को खखोर,
कुछ क्षण के लिए सही,
उसे भी भेज देना कहीं दूर, उसी झरोखे से।
कुंठित विचार को, मन के कोने से निकाल,
उसे भी विदा कर देना,
कभी लौट कर नहीं आने के लिए।
अब जब भी खिड़की खोलना,
तो हर पल को खुशियों का ही माध्यम बनाना,
और देखना की अब सिर्फ स्नेह और दुलार की ही बोली आए,
उस खिड़की से।
खोल कर रखना हर दम,
उस खुशियों वाली खिड़की को।
- कुमार रजनीश
तो सुबह वाली खुशियों को अन्दर आने देना।
देखना कि उसी के साथ, छोटे बच्चों की किलकारियाँ भी साथ आएं,
जो नई ऊर्जा के साथ, चहकते हुए अपने नन्हें कदमों से स्कूल जा रहें हों।
जब भी सुबह खिड़की खोलो,
तो ध्यान से सुनना कि कोयल की आवाज, जो तुम्हारे कान में मिश्री घोल रही हो।
बड़े चाव से अपनी पंखुड़ियों को फैलाए,
उस मुनिया को देखना जो फूलों पर मंडराती हो।
जब भी सुबह खिड़की खोलो,
तो अपने चेहरे को दोनों हाथों से थामे चौखट पर खडे हो,
ठंडी, उन्मुक्त हवाओं को अपने अन्दर भरने देना,
कि करना, एक नया अहसास, अपने खुलेपन का।
जब भी सुबह खिड़की खोलो,
तो पीपल के पत्तों से उन ओस की बूंदों को,
मोतियों के समान अपनी हथेलियों पर चुनना।
हो सके तो अनुभव करना, एक अनुपम अनुभूति का,
और समेट लेना उसे अपने मन और मस्तिष्क में।
जब भी सुबह खिड़की खोलो,
तो सूरज की किरणों को आने देना,
अपने झरोखों से, जो नई ऊर्जा का विस्तार करेगी,
तुम्हारे जीवन में, सुनहरे भविष्य की तरह।
हो सके तो उसके हल्के स्पर्श के ताप को अपने अन्दर समाहित करना,
और तरो-ताज़ा करना अपने अंतर्मन को।
जब भी सुबह खिड़की खोलो,
तो आने देना, बेला-चमेली के फूलों की खुशबु को,
जो सौम्य बनायेंगे आपके स्वभाव को।
भरपूर मजा लेना उस क्षण का,
और भर लेना उस मंजर को,
दरो-दिमाग में हर दम के लिए।
एक बार फिर से खिड़की खोलना,
कुछ जाने के लिए।
अपने अहम को, किनारे लगाने,
दु:ख की परत को खखोर,
कुछ क्षण के लिए सही,
उसे भी भेज देना कहीं दूर, उसी झरोखे से।
कुंठित विचार को, मन के कोने से निकाल,
उसे भी विदा कर देना,
कभी लौट कर नहीं आने के लिए।
अब जब भी खिड़की खोलना,
तो हर पल को खुशियों का ही माध्यम बनाना,
और देखना की अब सिर्फ स्नेह और दुलार की ही बोली आए,
उस खिड़की से।
खोल कर रखना हर दम,
उस खुशियों वाली खिड़की को।
- कुमार रजनीश
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