।। हिसाब-किताब बराबर ।।


  आज सुबह  दिल्ली मेट्रो में एक बुजुर्ग व्यक्ति से बात हो रही थी. वो अपने अनुभवों को बता रहे थे - कैसे पूरा जीवन उन्होंने नौकरी , परिवार की देखभाल में गुज़ार दी. अब उनकी इच्छा है कि वो रिटाएरमेंट के बाद अपने गाँव चले जाए और एक इत्मीनान की जिंदगी जियें. वहां फिर से शांत वातावरण में चार दोस्तों के साथ गप्प - सप्प करने को मिलेगा. वृच्छो के नीचे बैठ कर 'छन' कर आती हुई ताज़ी हवाओं को अपने अंदर समेटने की कोशिश करेंगे और साथ ही मित्रों के साथ चाय कि चुस्कियों का आनंद लेंगे. वहां गाँव  में चाय पीने का अलग ही मज़ा होगा क्योंकि वो 'कुल्हड़' में सर्व की जाएँगी. मिट्टी की खुशबू मुफ्त मिलेगी. आँगन में खाट लगाकर और औंधे लेट कर फिर से 'प्रेम आधारित' कविताओं की रचना करेंगे. उनकी यह एक बहुत सुदृढ़ रूचि रही थी कुछ लिखने की. जब वो जवान थे, तब घूमते- फिरते एक-दो कविता लिख लेते थे और अपने दोस्तों के बीच 'गर्व' महसूस करते थे, जब वाह-वाही होती थी. मैं राजीव चौक पहुँचने वाला था इसलिए जल्दी मैं मैंने उनसे सिर्फ यही कह पाया कि 'सर आपकी बातों में बहुत वज़न है..और इश्वर से यही प्रार्थना करता हूँ कि आप अपने रिटाएरमेंट के बाद कि जीवन की सुखद अनुभूति करें'.
        मेरे साथ ही एक और बुजुर्ग बैठे थे, वो भी मेरे साथ राजीव चौक से उतर 'सेंट्रल सेक्रेटेरियेट' वाली मेट्रो में अंदर आ पास में ही खड़े हो गए. वो हमारी पिछले सारी बातो को सुन रहे थे. उन्होंने तुनक मिजाजी से कहा कि साहब ऐसा है कि उन 'महानुभाव' ने कहा था कि गाँव में जाकर जिंदगी के मज़े लेंगे - सब इच्छाएं धरी की धरी रह जाएँगी. मैं भी ऐसा ही सोचता था परन्तु हक़ीकत से रु-ब-रु होते ही मैं यहाँ दिल्ली महानगर में अपने बेटे के पास आ गया. उस व्यक्ति की अविव्यक्ति को देख कर सहज ही समझा जा सकता था की वो एक 'कटु-अनुभव' को दर्शा रहा था. मैं सिर्फ उनकी बातो में 'सेंटेंस कनेक्टर' का काम कर रहा था. फिर से उस व्यक्ति ने कहा की - अभी गाँव में जाकर देखो न ही शुद्ध दूध है और न ही मिट्टी के कुल्हड़. वहां तो अब पावडर वाला दूध का पाउच उपलब्ध्ह है और 'डिस्पोसल' में चाय पीते हैं. शायद वो यहाँ 'डिस्पोसल' का मतलब 'डिस्पोसेबल कप' की बात कर रहे थे. साहब बिजली आँख- मिचौली खेलती रहती है और इसके चलते जेनेरेटर का धुआं पुरे वातावरण को प्रदूषित कर रहा है. गन्दगी और मच्छर के प्रकोप से अनेक तरह की बिमारिओं ने घर कर रखा है. इलाज के लिए एक भी अस्पताल नहीं और न ही बच्चो को पढ़ने के लिए अच्छे स्कूल. अच्छे टीचर तो हैं पर पैसे के लिए वो भी शहर की ओर रुख कर रहे हैं और करे भी क्यों नहीं ? सब लोग बढ़ना चाहते हैं .. कमाना चाहते हैं.
        मैं सिर्फ इतना ही कहकर इस 'टॉपिक' को विराम देना चाहा कि गाँव में दूध नहीं .. बिजली नहीं.. अच्छे स्कूल नहीं.. और अच्छे अस्पताल नहीं और इस शहर में दूध पाकेट में हर समय मौजूद ... बिजली कि कोई समस्या नहीं.. पैसे और पैरवी के बल पे अच्छे स्कूल की कमी नहीं..बिमारिओं के लिए अस्पताल तो होटलों की तरह सजी हुई हैं, जैसी सुविधा एवं इलाज चाहिए उसी तरह से पैसे खर्च करने होंगे. इस शहर में कमी है तो सिर्फ 'अपनों के लिए समय की'. शहर और गाँव का हिसाब -किताब बराबर. - कुमार रजनीश 

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