बाँध के पगड़ी सूरज ने
बाँध के पगड़ी सूरज ने कैसी शिद्दत है दिखलाई,
इस तपती धुप में देखो, है सबकी शामत आई.
अन्दर गर्मी लगती है और बाहर भी है धुप कड़ी,
आग बरसती है अम्बर से, धरती सारी जली पड़ी.
पंछी सारे चोच खोलकर, छिपते फिरते इधर उधर,
राही भी थक हार के, देखो ताने बैठे हैं चादर.
खेलते बच्चे , सो गए अब तो थक हार कर,
चौराहे का काला कुत्ता, हांफ रहा जीभ निकाल कर.
खपरैल के नीचे बैठा श्रमिक झेल रहा पत्ते का पंखा,
एक हाथ पानी बोतल, और दूजे में सत्तू-चोखा.
आराम से लेटा धरती बिस्तर और पत्थर को कर तकिया,
गर्म हवाओ ने हाय सबको आखिर ढेर किया.
भरी दोपहरी अम्मा ने आचार आम का लगवाया,
भाभी ने भी मेहमानों को सौफ का शरबत पिलवाया.
खड़ा चौक पर बिरजू भी देखो गुर मंतर सिखलाता,
पांच रुपये का आम पन्ना बेच, गर्मी का मुंह चिढाता.
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